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जैसे चन्द्रकान्त देवताले / लीलाधर मंडलोई

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बहुत दूर या कहें
देह से बाहर रहने का
सुफल है यह हुजूर
कितनी देर हो चुकी देह को सुने
असहनीय दर्द ने
कितने लाड़ में कहा मियां
इधर आओ, लेटो
गप्‍प लगाओ
दोस्‍ती करो

सुनो इस देह का संगीत
इसका विज्ञान समझो
कलाकार हो तो कान लगाओ
यह बेसुरा नहीं

इसकी अपनी रागिनियां हैं
अपनी सिम्‍फनी
जिस भाषा में पढ़ना चाहो
इसका अपना सौन्‍दर्य है

जरा सोचो जो दर्द में है
वे इसके साथ हैं सालों से
और दोस्‍त बहोत

बहुत रह चुके भाई बाहर
आओ मुझसे दोस्‍ती कर लो

जैसे चन्‍द्रकांत देवताले
आजकल मेरे इतने गहरे दोस्‍त हैं

कि मुझे छोड़कर
कविता के पास भी नहीं जाते
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