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जैसे तुझे स्वीकार हो / अज्ञेय

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 जैसे तुझे स्वीकार हो!
डोलती डाली, प्रकम्पित पात, पाटल-स्तम्भ विलुलित,
खिल गया है सुमन मृदु-दल, बिखरते किंजल्क प्रमुदित,
स्नात मधु से अंग, रंजित-राग केशर-अंजली से स्तब्ध-सौरभ है निवेदित:

मलय मारुत, और अब जैसे तुझे स्वीकार हो!
पंख कम्पन-शिथिल, ग्रीवा उठी, डगमग पैर, तन्मय दीठ अपलक,
कौन ऋतु है, राशि क्या है, कौन-सा नक्षत्र, गत-शंका, द्विधा-हत,
बिन्दु अथवा वज्र हो-

चंचु खोले, आत्म-विस्मृत हो गया है यती चातक :
स्वाति, नीरद, नील-द्युति, जैसे तुझे स्वीकार हो।
अभ्र लख भ्रू-चाप सा, नीचे प्रतीक्षा में स्तिमित नि:शब्द
धरा पाँवर-सी बिछी है, वक्ष उद्वेलित हुआ है स्तब्ध,

चरण की हो चाप किंवा छाप तेरे तरल चुम्बन की :
महाबल, हे इन्द्र, अब जैसे तुझे स्वीकार हो।
मैं खड़ा खोले हृदय के सभी ममता-द्वार,
नमित मेरा भाल; आत्मा नमित-तर है, नमित-तम मम भावना-संसार,

फूट निकला है न-जाने कौन हृत्तल वेधता-सा निवेदन का अतुल पारावार,
अभय वर हो, वरद कर हो, तिरस्कारी वर्जना, हो प्यार :
तुझे प्राणाधार, जैसे हो तुझे स्वीकार-
सखे, चिन्मय देवता, जैसे तुझे स्वीकार हो!

दिल्ली, 27 मार्च, 1941