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जैसे तेज़ धूप में / दिनकर कुमार

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जैसे तेज़ धूप में फैलती है पसीने की ख़ुशबू
जैसे काले रंग का ईश्वर विश्वसनीय बनता है
जैसे रोटी छा जाती है समस्त विचारधाराओं पर
जैसे पीड़ा की छटपटाहट से विकृत होते हैं चेहरे

उसी तरह संशोधन होता है, सभ्यता का संविधान बदलता है
अब अपनी इच्छा से मरना अपराध नहीं है
अब जीने के लिए वैसे भी अवसर नहीं है
न पहले की तरह धरती है, न पहले की तरह मौसम है

शमशान में उत्सव का शोर हो या राष्ट्रीय उल्लास हो
संसद में मज़ाक के साथ ग़रीबी को गेंद की तरह उछालते रहें
प्रति व्यक्ति आय के आँकड़े की रस्सी पर जारी रहे नट का खेल
अब ताली बजाने की घड़ी है एक राष्ट्रव्यापी ताली

सपने में देवी दर्शन देगी और बलि माँगेगी
तुम अपने सबसे प्रिय व्यक्ति की बलि चढ़ाओगे
सपने में देवता आएँगे और सती बनाने का निर्देश देंगे
तुम अपने परिवार की स्त्री को जीवित सती बनाओगे

जो भी था मनुष्य की तरह था अब पशु की तरह भी नहीं है
हृदय में जंगल है सूनापन है और एकान्त के आँसू हैं
अब हम एक मुट्ठी धूप लेकर अपने घावों को सेंकना शुरू करेंगे
पसीने की ख़ुशबू से रात में महक उठेंगे रजनीगंधा के फूल ।