भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जैसे पवन पानी / पंकज सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हमारी आवाज़ें थीं हमीं से कुछ कहने की कोशिश में
फिर कुछ गूँजता हुआ-सा थमा रहा सिसकी-सा
आख़िरकार वह भी ग़ुम हुआ आहिस्ता-आहिस्ता
बचा रहा एक बेआवाज़ शोर

यह सारा वृत्तान्त बहुत उलझा-उलझा है बहुत लम्बा
सबकी अलग-अलग थकान है
हर दुख का है कोई अविश्वसनीय प्रति-दुख
जो हमारे अनुपस्थित शब्दों की जगह जा बैठता है

दुख जितना मन में है उतना ही जर्जर देह में उतना ही
नहीं, उससे बहुत ज़्यादा बेफ़िकर नुचे-चिंथे समाज में

एक तरफ़ होकर अपने ही खोए शब्दों का आविष्कार
करना होगा जो भले ही बिगड़ी शक़्ल में आएँ ख़ूनआलूदा
मगर हमारे हों जैसे कल के

हम उन्हें पहचान ही लेंगे हर हाल में
हमारी हकलाहट में गुस्से में रतजगों में शामिल
बेबाक खड़े थे जो
दिखते हैं हमें भोर के सपने में कभी-कभी
उनके चेहरों पर आँसुओं के दाग हैं

हम उन्हें पहचान लेंगे
सारे आखेट के बीच नए आरण्यक की सारी कथाओं के बावजूद
सारे खौफ़नाक जादू सारे नशे के बावजूद
वे हमारी आवाज़ें थे

अब भी होंगे हमारी ही तरह मुश्किलों में
कहीं अपने आविष्कार के लिए
और विश्वास करना चाहिए
हम उन्हें पा लेंगे क्योंकि हमें उनकी ज़रूरत है
अपने पुनर्जन्म की ख़ातिर
थोड़े उजाले थोड़े साफ़ आसमान की ख़ातिर
मनुष्यों के आधिकारों की ख़ातिर
वे थे
वे होंगे हमारे जंगलों में बच्चों में घरों में उम्मीदों में
जैसे पवन पानी...