जैसे पूजा में आँख भरे झर जाय अश्रु गंगाजल में
ऐसे ही मैं सिसका सिहरा
बिखरा तेरे वक्षस्थल में!
रामायण के पारायण सा होठों को तेरा नाम मिला
उड़ते बादल को घाटी के मंदिर में जा विश्राम मिला
ले गये तुम्हारे स्पर्श मुझे
अस्ताचल से उदयाचल में!
मैं राग हुआ तेरे मनका यह देह हुई वंशी तेरी
जूठी कर दे तो गीत बनूँ वृंदावन हो दुनिया मेरी
फिर कोई मनमोहन दीखा
बादल से भीने आँचल में!
अब रोम रोम में तू ही तू जागे जागूँ सोये सोऊँ
जादू छूटा किस तांत्रिक का मोती उपजें आँसू बोऊँ
ढाई आखर की ज्योति जगी
शब्दों के बीहड़ जंगल में!