जैसे साँस लेती हूँ, वैसा ... / उत्पल बैनर्जी
अपनी स्वप्न-छाया में मुदित
वह खोई हुई थी अपनी कामना के आकाश में
जहाँ पलकों पर तने इन्द्रधनुष की आभा भीग रही थी
मधुरिमा के जल से,
मोम-सी पिघलती आकाशगंगा में
बिखरा हुआ था उसके लहराते केशों का अन्धेरा
जहाँ पूर्वजन्मों की इच्छाएँ जुगनुओं-सी टिमटिमा रही थीं
अपनी निजता के दर्पण में उसने चाँद से उदासी का सबब पूछा था
या कि चाँद ने उससे ....
और कोई कुछ नहीं बता सका था।
अजाने फूलों की कितनी ही गन्ध-स्मृतियाँ थीं
उसकी मुस्कराहट में
जहाँ उजाला कृतज्ञ होता था
उसके प्रेमगीतों से भर गया था पक्षियों का आकाश
जहाँ श्रुतियाँ उसके बहाने पृथ्वी का प्रेमगीत गा रही थीं
समय के कगार पर छूट गए उसके विस्मय
अपनी सात्विक दीप्ति में विसर्जित हो रहे थे
जिन्हें मन्दिर की प्राचीन शुचिता
मेरे विस्मय की दहलीज पर वन्दनवार-सी टाँग रही थी
अपनी नश्वर दुनिया की नश्वर भाषा में
मैंने पूछा था -- कैसा होता है प्रेम!
-- जैसे साँस लेती हूँ, वैसा ...!
कहा था उसने।