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जैसे हार गया था कलिंग अशोक से / राघवेन्द्र शुक्ल

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प्रेम से व्याकुल
जब भी मैं तुम्हारे बारे में सोचता हूँ
सामने कभी नहीं आती तुम्हारी देह
आती हो तुम तत्वतः,
एक स्थूल अस्तित्व
निराकार
एक अनुभूति की तरह
व्याप्त हो जाती हो
मन-मस्तिष्क में।
हवा की तरह बहने लगती हो
रक्त में,
और झूमने लगती है मेरी धड़कन।
एक अपूर्व सौंदर्य का सौरभ
जो तुमसे निकलता
केवल मैं महसूस कर रहा हूँ,
यकीन मानो,
संसार के लिए तुम जैसी दृश्य हो
मेरी दृष्टि में वैसी नहीं,
मैंने तुम्हें आंखों से कम
अंतर्दृष्टि से ज्यादा देखा है
जहां तुम सम्पूर्ण सुन्दर हो,
इतनी कि तुम्हे खो देने का डर प्रतिक्षण
इसलिए भी होता है
कि किसी दिन
तुम्हारे बेशकीमती होने का
किसी को पता लग जाएगा
और प्रतिस्पर्धाओं से सदा भयभीत मैं
एक युद्ध में हार जाऊंगा तुम्हें
जैसे हार गया था कलिंग
किसी अशोक से।