भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जैहै व्यथा विषम बिलाइ तुम्हें देखत ही / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जैहै व्यथा विषम बिलाइ तुम्हैं देखत ही
ताते कही मेरी कहूँ झूठ ठहरावौ ना ।
कहै रत्नाकर न याही भय भाषैं भूरि
याही कहैं जावौ बस बिलंब लगावौ ना ।
एतौ और करत निवेदन स वेदन है
ताकौ कछु बिलग उदार उर ल्यावौ ना ।
तब हम जानैं तुम धीरज- धुरीन जब
एक बार ऊधौ बनि जाइ पुनि आवौ ना।।