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जैहै व्यथा विषम बिलाइ तुम्हें देखत ही / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’

जैहै व्यथा विषम बिलाइ तुम्हैं देखत ही
ताते कही मेरी कहूँ झूठ ठहरावौ ना ।
कहै रत्नाकर न याही भय भाषैं भूरि
याही कहैं जावौ बस बिलंब लगावौ ना ।
एतौ और करत निवेदन स वेदन है
ताकौ कछु बिलग उदार उर ल्यावौ ना ।
तब हम जानैं तुम धीरज- धुरीन जब
एक बार ऊधौ बनि जाइ पुनि आवौ ना।।