जैहै व्यथा विषम बिलाइ तुम्हैं देखत ही
ताते कही मेरी कहूँ झूठ ठहरावौ ना ।
कहै रत्नाकर न याही भय भाषैं भूरि
याही कहैं जावौ बस बिलंब लगावौ ना ।
एतौ और करत निवेदन स वेदन है
ताकौ कछु बिलग उदार उर ल्यावौ ना ।
तब हम जानैं तुम धीरज- धुरीन जब
एक बार ऊधौ बनि जाइ पुनि आवौ ना।।