भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जॉगर का सुवरन / डी. एम. मिश्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बेाझ धान का लेकर
वो जब
हौले-हौले चलती है
धान की बाली-कान की बाली
दोनों सँग- सँग बजती है
मिट्टी-धूल-पसीने में
चम्पा गुलाब-सी लगती है

लाँग लगाये लूगे की
ऑचल का फेटा बाँधे
श्रृंगार, वीर रस एक साथ
जब दोनों आधे-आधे
पॉव में कीचड़ की पायल
मेड़ पे घास की मखमल
छम्म-छम्म की मधुर तान
नूपुर की घंटी बजती है

लुढ़क -लुढ़क कर गिरे पसीना
जेा श्रम का संवाद लगे
भीगा वसन मचलता भार
यैावन का अनुवाद लगे
कन्त साथ तो कहाँ थकन
रात प्रीत की चाँदी हो
दिन जाँगर का सुवरन
खड़ी दुपहरी में भी निखरी
इठलाती-बलखाती वो
धूप की लाली-रूप की लाली
दोनों गालों पे सजती है