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जों जल माँही मीन / रामधारी सिंह 'काव्यतीर्थ'

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शरीर जड़
आरो आत्मा चेतन
बुझैं रे मन ।

शब्द, स्पर्श सें
रूप, रस, गंध सें
रहित ईश ।

नित्य अजन्मा
अनादि-अनंत छै
परमेश्वर ।

सब्भे प्राणी के
अन्दर निवास छै
ईश्वर के ।

परमेश्वर
उत्पत्ति-विनाशो ॅ सें
रहित छै ।

परमेश्वर
सब्भै के नियंता छै
सब्भें कहै छै ।

आत्मचिंतन
संभव नै हुऐ छै
ज्ञान के बिना ।
परम धाम
वहेॅ छेकै, जैठाँ सें
जीव नै लौटै ।

आत्मचिन्तन
सम्भव नै हुऐ छै
ज्ञान के बिना ।

पुण्य-क्षीण सें
मनुष्य मृत्युलोक
भ्रमण करेॅ ।

अपना पर
जेकरा विश्वास नै
ईश पर नै ।

नर-तन तेॅ
खुदा-महल छेकै
‘नानक’ बोलै ।

मधुमक्खी तेॅ
फूलोॅ सें पराग लै
मधु बनावै ।

वृक्ष आपनोॅ
काटै वाला केॅ भी
छायाए दै छै ।