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जोग-विजोग / राजू सारसर ‘राज’

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पुरवाई सूं लेय
बादळां रो सनेस
धरती रौ जौबान
अंगड़ाई लेवै
करै सिणगार
प्र्रीत रो पाणी बरस्यां
बुझैली अंतस री अगन
मै’क उठैलौ
तन-मन
उण री मांग में
बहार भरसी रंग
चांद आरसी रंग
देख’र
मुळकती
विजोगण धरती
संजोग रा सुपना देखै
सजै-धजै
सो’ळा सिंणगार करै
खणकती चूड़यां री
खण-खण
चै’कती रमझोळ री
छण-छण
बाजता बिछिया
मै’कती कूं-कूं
हाथां हांसती
राचणी मैं’दी
सुहागण।
लख’र
बधती जावै
सांसा री तपस
प्रीत-वरण
सतरंग रो
इन्नर धणख
लै’रियो
ओढवा री
त्यारयां करती
बाटां जोवै
प्रीतम री
मिलवा नै सुहागण।
उणी’ज खिण
पागल प्रीत
पीड़ उघाड़ै
कोयल गीत
दरदला गावै
हिवड़ै सूती हूक
जगावै
पप्पइयो पी-पी
टैर लगावै
क्यूं दुसमी
आ अगन लगावै
आवण दे
हियै रो हार।
बिसवास मन टूटण दे।
सबर सरोवर
मत खुटण दे।
आंगण बिठावस्यूं
हिय सजावस्यूं !