जोबन के दरीचों पे कोई पर्दा नहीं था / रमेश 'कँवल'
जोबन के दरीचों पे कोर्इ परदा नहीं था
उस शोख़ को जिस्मों की नुमार्इश1पे यक़ीं था
वो आरिज़ोलब2, वो घनी ज़ुल्फ़ें, खुले बाज़ू
खु़शबू का समुन्दर मेरी सांसों केकरीं3 था।
आहट, कोर्इ दस्तक, वो सिमटना, वो बिछड़ना
कुछ इसके सिवा और निगाहों में नहीं था
ख़ुशियों के दरो-बाम4 थे माज़ी5 के खंडर में
इमरोज़6 की बस्ती में ग़म-आलूदा7 मकीं था
क़िस्तों में निगलता रहा किरनों का बवंडर
यादों का सफ़र बर्फ़ की बाहों में कहीं था
वो नाज़, वो अंदाज़, वो ग़म्जेम8 वो इशारे
र्इमान की दौलत पे कहां मुझ को यक़ीं था
दावत थी 'कंवल’ उसकी हर एक इक शोख़ अदा में
पैकर9 नहीं वह इश्क़ हकातशहीरे-हसीं10 था
1. प्रदर्शनी 2. कपोलऔरहोंट 3. निकट 4. द्वारऔरछत
5. भूतकाल 6. वर्तमान 7. दु:खसेओतप्रोत
8. हावभाव, नखरा 9. आकृति, काया 10. मनोरमविज्ञापन।