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जोहड़ की सपाट कथा / अश्वनी शर्मा

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तीन तरफ टीलों से घिरी
चिकनी मिटट्ी की डेरी में
बसा होगा कभी ये कस्बा

चिकनी मिटट्ी में खोदे गये जोहड़ ने
बरसों बुझाई है प्यास इस कस्बे की
बहुत से रंग देखे जोहड़ ने
जोहड़ बहुत खुश भी था
इस बात से कि इसके छोटे प्रतिरूप
कुंड भी बने थे घर-घर

लोगों को पता थी
एक घड़े पानी की कीमत
तब पानी, पानी नहीं था
घड़ा भर या कुंडभर प्रेम था
जो मांगा जाता था अधिकारपूर्वक
और दिया जाता था प्रेमपूर्वक

बंट गया पानी का साझापन एक दिन
घर-घर पहुंच गये नल
जोहड़ में एक साथ डूबते घड़ों की
डब-डब का लयबद्ध संगीत
खाली नलकों की सूंसाट में खो गया
पानी का साझापन क्या बंटा
कस्बे का साझापन ही बंट गया

भूल गये लोग
पानी की कीमत
जिस कस्बे में कीचड़
की संभावना ही नहीं थी
उस कस्बे में कीचड़ ही कीचड़ हो गया

जोहड़ का गला घोंट दिया
नित नये बनते मकानों ने
अधमरे जोहड़ को मारने के लिये
खोल दिये गये गंदे नाले जोहड़ में

जोहड़ सपाट शब्दों में मुझे सुनाता है ये कथा
क्या वास्तव मे जोहड़ का ये दुख इतना
सपाट है!
क्या जोहड़ का मरना एक यूं ही सी घटना है ?