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जो अता करते हैं वो नाम-ए-ख़ुदा देते हैं / सरवर आलम राज़ ‘सरवर’

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जो अता करते हैं वो नाम-ए-ख़ुदा देते हैं
ग़म भी देते हैं तो हिम्मत से सिवा देते हैं

गह रुलाते हैं हमें, गाह हँसा देते हैं
जाने किस जुर्म की ऐसी वो सज़ा देते हैं?

इस तरह अह्ल-ए-जफ़ा, दाद-ए-वफ़ा देते हैं
जब भी कम होता है ग़म, और बढ़ा देते हैं

दाग़-ए-दिल,दाग़-ए-जिगर,दाग़-ए-जुनूँ,दाग़-ए-फ़िराक़
हाथ उठ्ठा तो है अब देखिए क्या देते हैं!

आग दिल की कहीं अश्कों से बुझा करती है?
ये तो कुछ और लगी दिल की बढ़ा देते हैं

दर्द वो देते हैं ऐसा कि नहीं जिसका इलाज
और फिर दर्द बढ़ाने की दवा देते हैं

उनकी बातों में जो आए तो ये जाना हमने
बात की बात में दीवाना बना देते हैं

लग़्ज़िशें मेरी उन्हें बार हैं, अल्लाह,अल्लाह!
जो निगाहों से मय-ए-होश-रुबा देते हैं!

हम से उलझे न ज़माना कि हैं बरबाद-ए-जुनूँ
गर्दिश-ए-वक़्त को आईना दिखा देते हैं!

क्यों हो बे-मेह्री-ए-दुनिया से परेशाँ "सरवर"?
लोग तो बात का अफ़्साना बना देते हैं!