जो आँखों से गुज़रा नहीं / निश्तर ख़ानक़ाही
आने वाले दिनों को भी हम जी चुके
अब यहाँ कोई मौसम अनोखा नहीं
आओ अब अपने बिस्तर लपेटें, चलो
उस नगर में जो आँखों से गुज़रा नहीं
पत्तियाँ झड़ गई, फूल मुरझा गए,
कितना सुनसान है पेड़ एहसास का
इसकी शाख़ों पे जिसका बसेरा था कल
वो परिंदा भी तो आज लौटा नहीं
जिसको दुश्मन कहूँ कोई ऐसा नहीं
अब तो जो भी मेरा बही-ख़्वाह* है
ये जो हर साँस पीने पे मजबूर हूँ
मैंने ये ज़हर ख़ुद तो ख़रीदा नहीं
इश्तहाओं* के बे-वर्ग सहारा* में अब
गुमशुदा लज़्ज़ते ढूँढ़ती है जबाँ
ऐ ज़मीं! तेरे दामन में वो फल भी है
जायक़ा जिसका दुनिया ने चखा नहीं
अपने पुरखों का वारिस हूँ फिरता हूँ मैं,
दर-ब-दर अपनी झोली में डाले हुए
सारे सिक्के जो टकसाल बाहर हुए,
सारे अलफ़ाज़ वो जिनके माना* नहीं
1- बही-ख़्वाह--हितैषी, शिभचिंतक 2- बे-वर्ग सहारा--भूख, इच्छा 3- इश्तहाओं--वीरान जंगल 4- माना--अर्थ