भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जो उतरता ही नहीं मन रसना से / जितेन्द्र श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

घर से दूर ट्रेन में पीते हुए चाय
साथ होता है अकेलापन
वीतरागी-सा होता है मन

शक्कर चाहे जितनी अधिक हो
मिठास होती है कम
चाय चाहे जितनी अच्छी बनी हो
उसका पकापन लगता है कम

साधो! अब क्या छिपाना आपसे
यह जादू है किसी के होने का
यह मिठास है किसी की उपस्थिति की
जो उतरता ही नहीं मन-रसना से ।