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जो किनारा काटता है काट ले पर / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’

जो किनारा काटता है काट ले, पर
मैं लहर के साथ बहता ही रहूँगा
क्या करूँ मैं जग नहीं पहिचान पाता
ओ’ हृदय की भावनाएँ भी छिपाता
एक तो जीवन व्यथाओं से भरा है
और उस पर वेदना के गीत गाता
आह मेरी मिल गई जग का अगर तो
क्या करेगा आह में मुझकों जलाकर
जो जलाना चाहता है वह जला ले
मैं हृदय की बात कहता ही रहूँगा
है मुझे हिम्मत जगत को प्यार कर लूँ
है मुझे ताकत अकेले पार कर लूँ
सोचता ही रह गया जीवन डगर पर
मैं नया छोटा अलग संसार का लूँ
दूर हो पाती नहीं मनुज से
जो कि मैं भी खोल लूँ बन्धन पुराना
जो डुबाना चाहता है वह डुबा ले
मैं व्यथा का भार सहता ही रहूँगा
जो मनाता है मरण त्योहार अपना
जो जलन को मानता उपहार अपना
जो कि जीवन के मधुर क्षण को लुटाकर
मानता है प्यार को आधार अपना
प्यास से सूखे अधर
आँखें तरल हैं
दूर रहकर भी नहाले
आँसूओं से
जो छुड़ाना चाहता है वह छुड़ा ले
मैं उसी का हाथ गहता ही रहूँगा