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जो कुद्रत की इस पर इनायत न होती / देवी नांगरानी
Kavita Kosh से
जो कुदरत की इस पर इनायत न होती
ज़मीं इस कदर ख़ूबसूरत न होती
नज़ारे न होते, नज़ाकत न होती
अगर ज़िन्दगी में मुहब्बत न होती
अगर चाँद-सी होती बेजानो-वीरां
तो धरती पे जीने की सूरत न होती
न होतीं अगर शोख-चंचल अदाएँ
कयामत से पहले क़यामत न होती
खुले हाथ उसकी अताएँ हैं, वरना
मुझे माँगने की ये आदत न होती
दिलों में सदा पाक जज़्बे उमड़ते
अगर सोच में कुछ कसाफ़त न होती
यकीं होता ‘देवी’ को तेरी वफ़ा पर
जो दुश्मन की इसमें शरारत न होती