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जो चल पड़ा है अँधेरे में रोशनी बन कर / जहीर कुरैशी

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जो चल पड़ा है अँधेरे में रोशनी बनकर
तिमिर की आँख में चुभता है किरकिरी बनकर

छिपी थी कुण्ठा की कालोंच उसके मन में कहीं
निकल रही है वो बातों में गन्दगी बनकर

मैं उससे कैसे कहूँ , उठिए मेरे बिस्तर से
वो मेरी शैया पे लेटी है चाँदनी बनकर

वो प्यार था या जुनूँ था या कोई सम्मोहन
समंदरों की तरफ़ चल पड़े नदी बनकर

ये दण्ड भोगना पड़ता है ख़ास होने का
वो जी न पाया कभी आम आदमी बनकर