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जो चिलचिलाती दोपहर की धूप से यारी करे / अमर पंकज

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जो चिलचिलाती दोपहर की धूप से यारी करे,
इक शबनमी-सी भोर में वह कोहरे से क्यों डरे।

वो खिलखिलाकर हँस रहे थे क़त्ल के अंदाज़ पर,
नादान दिल, मुझको मिले जो घाव हैं अब भी हरे।

झुकते नफासत से लिए वह हाथ में खंज़र सदा,
मासूमियत ये आपकी जो कर रहे सज़दा अरे।

देते रहे हर दिन तग़ाफुल चाशनी में सान कर,
क़ातिल यहाँ ख़ुद देखता है प्यार आँखों से झरे।

कुदरत सँवारें वह हमेशा पेड़ को ही काट कर,
सींचा करें सब झाड़ियाँ जब रोज़ अब जंगल मरे।

सब बेख़ुदी के जश्न में लहरा रहे लुटकर यहाँ,
ख़ैरात जो है बाँटता वह रोज़ ही लूटा करे।

करते रहे रहबर गुमाँ तो हो गए मगरूर सब,
सब पर नज़र रक्खो ‘अमर’ पर ख़ुद रहो सबसे परे।