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जो ज़माने का हम-ज़बाँ न रहा / 'बाकर' मेंहदी
Kavita Kosh से
जो ज़माने का हम-ज़बाँ न रहा
वो कहीं भी तो कामराँ न रहा
इस तरह कुछ बदल गई है ज़मीं
हम को अब ख़ौफ़-ए-आसमाँ न रहा
जाने किन मुश्किलों से जीत हैं
क्या करें कोई मेहर-बाँ न रहा
ऐसी बेगानगी नहीं देखी
अब किसी का कोई यहाँ न रहा
हर जगह बिजलियों की योरिश है
क्या कहीं अपना आशियाँ न रहा
मुफ़लिसी क्या गिला करें तुझ से
साथ तेरा कहाँ कहाँ न रहा
हसरतें बढ़ के चूमती है क़दम
मंज़िलों का कोई निशां न रहा
ख़ून-ए-दिल अपना जल रहा है मगर
शम्मा के सर पे वो धुवाँ न रहा
ग़म नहीं हम तबाह हो के रहे
हादसा भी तो नागहाँ न रहा
क़ाफ़िले ख़ुद सँभल सँभल के बढ़े
जब कोई मीर-ए-कारवाँ न रहा