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जो ज़ौके़-इश्क़ दुनिया में न हिम्मत आज़मा होता / सीमाब अकबराबादी

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जो ज़ौके़-इश्क़ दुनिया में न हिम्मत-आज़मा होता।
यह सारा कारवाने-ज़िन्दगी ग़ाफ़िल पड़ा होता॥

ख़मोशी पर मेरी, दुनिया में शोरिश है क़यामत की।
ख़ुदा-न-ख़्वास्ता लब खुल गए होते तो क्या होता॥

शुआरे-हुस्न पाबन्दी, मिज़ाजे-इश्क़ आज़ादी।
जो खुद अपना ही बन्दा है, वो क्या मेरा खु़दा होता॥

खुदा ने ख़ैर की, थी राहे इश्क़ ऐसी ही पेचीदा।
कि मेरे साथ मेरा रहनुमा भी खो गया होता॥

उड़ा दी मैंने आखिर धज्जियां दामने-हस्ती की।
गरेबाँ ही के दो तारों से क्या ज़ोर-आज़मा होता?

कहाँ यह दहरे-कुहना और कहाँ ज़ौके़-जवाँ मेरा।
कोई दुनिया नई होती, कोई आलम नया होता॥

किया इक सजदा मैंने हुस्न को तो हो गया क़ाफ़िर।
अगर सर काट कर क़दमों पे रख देता तो क्या होता?