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जो थे बुलंद सही फ़ैसले दिलाने में / द्विजेन्द्र 'द्विज'

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जो थे बुलंद सही फ़ैसले दिलाने में

वो लफ़्ज़ बन्द हैं दहशत के कारख़ाने में


जो याद आ गए बच्चे , ज़रूरतें घर की

तमाम दर्द गए भूल कारखाने में


चलो फिर आज भी फ़ाक़े उबाल लेते हैं

अभी तो देर है फ़स्ल—ए—बहार आने में


है सेज काँटों की अब और आसमाँ छत है

मिलेगा और भला क्या ग़रीबख़ाने में


जुड़ेंगी सीधे कहीं ज़िन्दगी से ये जाकर

भले ही ख़ुश्क़ हैं ग़ज़लें ये गुनगुनाने में


ग़ज़ल में शे’र ही कहना है ‘द्विज’ ! हुनरमन्दी

नया तो कुछ भी नहीं क़ाफ़िए उठाने में