भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जो दिया तुमने वो सब सहना पड़ा / राकेश जोशी
Kavita Kosh से
जो दिया तुमने वो सब सहना पड़ा
पत्थरों के शहर में रहना पड़ा
दौर ऐसे भी कठिन आए हैं जब
ख़ुद ही अपनी आँख से बहना पड़ा
हम मुखौटों की दुकानों में बिके
जो थे हम, उससे अलग दिखना पड़ा
हर जगह बौने बने राजा मिले
जब कहा बौनों ने झुक, झुकना पड़ा
तुमको औरों से नहीं फ़ुर्सत मिली
हमको ख़ुद से ही सदा लड़ना पड़ा
रोटियाँ बनकर उगें, ख्वाहिश थी ये
झाड़ियाँ बनकर उगे, उगना पड़ा
हम मशीनों की तरह लिखते रहे
जो कहा तुमने, हमें लिखना पड़ा
क्या बताएँ किसलिए ‘राकेश’ को
बारहा जीना पड़ा, मरना पड़ा