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जो नदी-ताल होते न मन के कृपण / पंकज परिमल

रुद्र की आँख से भी झरे अश्रु कुछ
आँख लेकिन हमारी बरसती नहीं

रक्त बहता रहा, देह से प्राण के
उड़ गए सब पखेरू, दिशा किस गए
नीतियाँ बघनखी रोज़ होती गईं
चित्त में द्वन्द्व ही आज घर कर गए

जो नदी-ताल होते न मन के कृपण
आस की बदलियाँ यूँ तरसती नहीं

किन्तु की देह में कुछ परन्तू बसे
अब अखय-पात्र में सिर्फ़ शंका भरी
घोर नैराश्य की एक जादूछड़ी
रोज़ दिखला रही एक जादूगरी

यह न होता तो' शमशान की भैरवी
फिर दशा पर हमारी हरसती नहीं

दुःख ने अँगुली थाम ली और फिर
साथ चलता रहा बालकों की तरह
लाडले-सा सदा ही ठुनकता रहा
चित्त अपना किया, बस, उसी ने फतह

मन घिरा ही रहा आत्म के व्यूह में
लोक की वेदना यूँ परसती नहीं