भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जो नहीं है / सुरेन्द्र रघुवंशी
Kavita Kosh से
वक़्त का संकेत है
कि जो है उसको
उसके होने की तरह मत देखो
जो नहीं है उसमें
उसके होने की सम्भावनाएँ तलाशो
एक पहाड़ को
उसकी दिखाई देने वाली
ऊँचाई में मत देखो
बल्कि उसके नीचे दबी धरती पर
उतना वज़न महसूस करो
जितना वज़नी पहाड़
उसकी छाती को दबाए है सदियों से
खतरनाक होगा
सरल रेखा में छिपी वक्रता का विस्मरण भी
नदी में प्रवेश से पूर्व
दोपहर की धूप में
तपती रेत का अनुभव करते हुए
दरकते खेत में बैठे किसान का चेहरा पढ़ो
एक स्त्री के गर्भ में पल रहे
भ्रूण की हलचल का अनुभव करो
और डर सहित एक स्त्री को ही नहीं
पूरी पृथ्वी को उसकी नग्नता में देखो
किसी जलसे में चलते हुए
कोई अनसुनी चीत्कार सुनने की कोशिश करो
और किसी सभ्य सभा की शान्ति को
अदृश्य आगत घटना के बहाने खारिज़ करो