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जो निहाँ रहता था / रामस्वरूप ‘सिन्दूर’
Kavita Kosh से
जो निहाँ रहता था, हर लम्हा अयां रहने लगा!
मैं कहाँ रहता था, क्या जाने कहाँ रहने लगा!
कुछ असर पैदा हुआ लगता है निगहे शौक में,
दोस्त तो फिर दोस्त, दुश्मन मेहरबाँ रहने लगा!
जब से सूरज, चाँद-तारे जीस्त के हिस्से हुए,
एक मुफ़लिस में कहन शाहेजहाँ रहने लगा!
दीद-ए-तर से वुजूदे ज़िन्दगी हासिल हुआ,
मैं जवानी से कहीं ज्यादा जवां रहने लगा!
दिल में कोई आ बसा 'सिन्दूर' तो ऐसा लगा,
एक घरौंदें में समूचा आसमां रहने लगा!