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जो न होना था / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
जो न होना था, वह सब हुआ, हो गया
योग जागा, वियोगी जगा सो गया।
रातरानी-सी बातें तुम्हारी हैं ये
अँगुलियाँ-काम के तीर पंचम नये
प्राण मुर्छित हों, बेसुध हों ऐसे हुये
एक सुर ही तो छेड़ा था तुमने मगर
गीत गोविन्द में मन कहाँ खो गया।
मै तो सोया रहा, जागता था पहर
एक पर्वत पिघलता रहा रात भर
फूल के साथ खुशबू का चंचल सफर
एक तुम जो मिले मेरे जीवन को तो
जाने किस बात पर मन हँसा, रो गया।
रेत पर यह बिछी चाँदनी की नदी
किसके सुर में फिर गूँजी यह नव सतपदी
बीतते ही रहे साल, युग, फिर सदी
आखरी साँस तक, आ, चुने फूल को
कौन लौटा है फिर से यहाँ, जो गया।