जो बद्दुआ भी उधर जाए तो दुआ ही लगे / अभिनव अरुण
जो बद्दुआ भी उधर जाए तो दुआ ही लगे
अजब दरख़्त है पतझड़ में भी हरा ही लगे
ये आगरा है इसी शह्र में है ताजमहल,
यहाँ की आबो हवा औरों से जुदा ही लगे
हरेक मोड़ पे इक मोड़ आ रहा है नया,
ये ज़ीस्त फिर भी निभाती हुई वफ़ा ही लगे
पढ़ो क़ुरआन या गीता के श्लोक को ही पढ़ो,
किसी भी चश्मे से देखो ख़ुदा ख़ुदा ही लगे
तमाम पर्दों के पहरे से कुछ गुरेज़ नहीं,
मगर ये खिड़की तो खोलो ज़रा हवा ही लगे
हरेक शख्स सिमट सा गया है ख़ुद में यहाँ,
नहीं किसी से रहा कोई वास्ता ही लगे
जो कल की शाम मिला था मुहब्बतों से बहुत,
सुबह को ऐसे वो बदला कि दूसरा ही लगे
जो सच बयानी में करता नहीं है कोई लिहाज,
मेरा वो दोस्त मेरे घर का आइना ही लगे
सभी को नींद में चलने की है बीमारी लगी,
हरेक शख्स यहाँ सोया पर जगा ही लगे