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जो भी आए, आएंगे दो-चार / अमरेन्द्र

जो भी आए, आएंगे दो-चार, हमारे बाद
गूंजेंगे फिर बागों में गुंजार, हमारे बाद !

बहुत घृणा थी, नफरत जग में
मैंने सबको प्यार सिखाए
लोग लहू के प्यासे थे पर
मैंने गीत प्रीत के गाए,
पत्थर मन पिघलेंगे सबके
आज नहीं तो कल मानेंगे, प्यार, हमारे बाद !

रेत-रेत थी प्यासी-प्यासी
मैंने नदी उठाई, लाई
जिसके शीतल जल को छूकर
छूट गई सूखी सब काई
छाया छूटेगी जब मेरी
तब रोयेंगे रेत, नदी की धार, हमारे बाद !

लेकिन कोई भी रोए क्यों
जग को अमृत दान दिया है
निकला था मन्थन में जो विष
उसका हमने पान किया है
कभी न मुरझेंगे पलाश ही
खूब खिलेंगे सालों भर कचनार, हमारे बाद !