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जो भी देना है तुम देना / विमल राजस्थानी
Kavita Kosh से
जो भी देना हो तुम देना
पर मेरे मन के दरपन को पत्थर की सौगात न देना
जब इसके कुछ टुकड़े होंगे
नक्षत्रों का वंश बढ़ेगा
दुनिया की तकदीरों के-
सुख-दुख का थोड़ा अंश बढ़ेगा
नूतन सृष्टि रचाने वाला, कवि-मन तो पहले से ही है
प्रकृति सुहागिन है मुझसे, अब इसको फिर बारात न देना
सागर का जल खारा होता
आँसू भी तो खारे होते
अम्बुधि पद पखारता क्षिति के
आँसू दुख-पीड़ा को धोते
मेरे मन की आँखों ने उगते ही डबडब होना सीखा
डब-डब ही रहने दो इनको, झिमिर-झिमिर बरसात न देना
कवि तो सौ-सौ सूरज गढ़ता
अग-जग को जीवन देता है
सारी सृष्टि अनावृत करने-
वाला अद्भुत मन देता है
सुन्दर, सुखद भोर का जादू ही मेरे मन में रमने दो
मन छीनो सौरभ की थपकी मेघाच्छन्न प्रभात न देना