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जो भी यकजा है बिखरता नज़र आता है मुझे / अबरार अहमद

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जो भी यकजा है बिखरता नज़र आता है मुझे
जाने यूँ है भी कि ऐसा नज़र आता है मुझे

चश्म-ए-वा में तो वही मँज़र-ए-ख़ाली है जो था
मूँद लूँ आँख तो क्या क्या नज़र आता है मुझे

माइल-ए-अर्ज़-ए-तमन्ना है न है वक़्फ़-ए-मलाल
ऐ मिरे दिल तू ठहरता नज़र आता है मुझे

पस-ए-नज़्ज़ारा कोई ख़्वाबأ-ए-गुरेज़ाँ ही न हो
देखने में तो तमाशा नज़र आता है मुझे

बाँध लूँ रख़्त-ए-सफ़र लौट चलूँ घर की तरफ़
तिरी जानिब से इशारा नज़र आता है मुझे

तुझे क्यूँकर हो ये मालूम मिरे माह-ए-तमाम
दाग़-ए-दिल कैसे सितारा नज़र आता है मुझे

कश्ती-ए-जाँ यही इक-आध भँवर और है बस
कहीं नज़दीक किनारा नज़र आता है मुझे

देखने-देखने में फ़र्क़ हुआ करता है
तुम्ही बतलाओ कि कैसा नज़र आता है मुझे