जो भी हो सो ये हैं / तरुण
(अपनी काव्य-सृष्टि पर एक दृष्टि डालते हुए)
जो भी है, जैसे भी हैं, बस ये हैं।
लौह, स्वर्ण या रजत-सा काला, पीला या श्वेत,
स्वप्न साकार करने को जुटाई-कंकड़, मिट्टी या रेत।
सुडौल, बेडौल, अनगढ़-खुरदुरा-
रमणीय, उपेक्ष्य-वरेण्य, अच्छा या बुरा।
मेरी चकई, मेरी डोर, मेरा धनुष, मेरा बाण,
मेरे रंग, मेरी कूंची, काँच-किरचें, मेरे आयुध, मेरी कथा और त्राण।
विराट् आकाश के नीचे छिद्रों-भरी मेरी खपरैल पर फैले-
ये मेरी चेतना की बेलों और लतरों पर आये
महके-महके से फलियाँ फल-फूल हैं-मीठे, तीते, कड़वे, कसैले।
बस यही है, यही है-सत्य, या कि मेरा सपना,
नाश और मरण की लीलास्थली इस सृष्टि में,
मुझ सीमित में या अनन्त में-
जीवन के द्वन्दों में, हार में या जीत में-
कहने को जो है बस मेरा अपना!
मौत के गरजते सागर-तट की रेत में मेरी आत्म-ज्योति के शिलालेख;
बच्चे के हाथों-खिंची स्लेट की लकीरों-सी,
काल-फलक पर मेरी उपस्थिति की क्षणिक रेख।
मेरा सर्जन: कहूँ क्या इसे मैं अपना अन्तर्वैभव?
हेमन्ती चितकबरे सूर्यास्तों की कुहरिल शांतियाँ?
या, हरी घास के ओस-कणों में से कसमसाती-चिहुँकती-फूटती
सूर्य-रश्मियों की रोमांचित कांतियाँ?
मेरे अस्तित्व की ‘प्रभाती’, या पहाड़ी राग?
या मुझमें-मेरे प्राणों में, उपजा मेरा मधु, किंजल्क, सुगन्ध और पराग?
गुलमुहरी आग, मेरी हँफनी, सूखे कंठ, मेरी भय-आशंका, होठ के झाग?
निस्तब आधी रात के तारों की-सी नीरव पुकार?
उस्तरे-पैनाते में निकले-छूटे स्फुल्लिंग, क्रांतियाँ, फूत्कार?
अनन्त शून्य में उठी मेरे दुर्बल-विवश डैनों की फटकार?
बिन बरसे ही निकल जाती सी काली-सुर्मई घटा के नीचे
प्यासे मरुस्थल का विषाद, हाहाकार?
मेरी कशिशें, मेरा दरद, शिशिर के बफों-सा मौन?
-ओह, जीवन में जिसे तोड़ सका है कौन?
नदियाँ, टनल, मैदान, पुल, घाटियाँ, कछार-
आधी रात में पार करती धड़धड़ाती जाती
ट्रेन का-सा रहा मेरा जीवन-सफर क्षण चार!
अलबमी आँखों में, लौह-पहियों की धड़ाधड़ आवाज में
खिड़की के सहारे अनमने बैठे में, जो कुछ मुझमें आ रहा है-
समा रहा है
अकस्मात, दरद-भरा ज्ञात, अज्ञात-
बस, वही है मेरी कविता-मेरा गान-रुदन! मेरी इस जनम की बात!
1986