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जो भूलतीं भी नहीं / फ़िराक़ गोरखपुरी
Kavita Kosh से
जो भूलतीं ही नहीं,याद भी नहीं आतीं .
तेरी निगाह ने क्यों वो कहानियाँ न कहीं .
तू शाद खोके उसे और उसको पाके ग़मी.
'फ़िराक़' तेरी मोहब्बत का कोई ठीक नहीं.
ह्यात मौत बने,मौत फिर ह्यात बने.
तेरी निगाह से ये मोजज़ा भी दूर नहीं.
हज़ार शुक्र की मायूस कर दिया तूने.
ये और बात कि तुझसे भी कुछ उम्मीदें थीं.
खुदा के सामने मेरे कसूरवार हैं जो.
उन्हीं से आँखें बराबर मेरी नहीं होतीं.
मुझे ये फिकर कि जो बात हो,मुद्ल्लल हो.
वहाँ ये हाल कि बस हाँ तो हाँ नहीं तो नहीं.
यूँ ही सा था कोई जिसने मुझे मिटा डाला.
न कोई नूर का पुतला नकोई ज़ोहरा-जबीं.