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जो लड़ें जीवन की सब संभावनाओं के ख़िलाफ़ / द्विजेन्द्र 'द्विज'

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जो लड़ें जीवन की सब संभावनाओं के ख़िलाफ़

हम हमेशा ही रहे उन भूमिकाओं के ख़िलाफ़


जो ख़ताएँ कीं नहीं , उन पर सज़ाओं के ख़िलाफ़

किस अदालत में चले जाते ख़ुदाओं के ख़िलाफ़


जिनकी हमने बन्दगी की , देवता माना जिन्हें

वो रहे अक्सर हमारी आस्थाओं के ख़िलाफ़


ज़ख़्म तू अपने दिखाएगा भला किसको यहाँ

यह सदी पत्थर—सी है संवेदनाओं के ख़िलाफ़


सामने हालात की लाएँ जो काली सूरतें

हैं कई अख़बार भी उन सूचनाओं के ख़िलाफ़


ठीक भी होता नहीं मर भी नहीं पाता मरीज़

कीजिए कुछ तो दवा ऐसी दवाओं के ख़िलाफ़


आदमी से आदमी, दीपक से दीपक दूर हों

आज की ग़ज़लें हैं ऐसी वर्जनाओं के ख़िलाफ़


जो अमावस को उकेरें चाँद की तस्वीर में

थामते हैं हम क़लम उन तूलिकाओं के ख़िलाफ़


रक्तरंजित सुर्ख़ियाँ या मातमी ख़ामोशियाँ

सब गवाही दे रही हैं कुछ ख़ुदाओं के ख़िलाफ़


आख़िरी पत्ते ने बेशक चूम ली आख़िर ज़मीन

पर लड़ा वो शान से पागल हवाओं के ख़िलाफ़


‘एक दिन तो मैं उड़ा ले जाऊँगी आख़िर तुम्हें’

ख़ुद हवा पैग़ाम थी काली घटाओं के ख़िलाफ़