भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जो शख्स भी तहज़ीबे-कुहन छोड़ रहा है / राजेंद्र नाथ 'रहबर'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जो शख्स़ भी तह्जीीबे-कुहन छोड़ रहा है
वो अपने बुज़ुर्गों का चलन छोड़ रहा है

अल्लाह निगहबान! मिरा लाडला बेटा
'डॉलर` के लिये अपना वतन छोड़ रहा है
 
शायद कि वो कांधा भी तुझे देने न पहुंचे
तू जिन के लिये अपना ये धन छोड़ रहा है

ये तर्क की है कौन सी मंज़िल या रब
दुन्या की हर इक चीज़ को मन छोड़ रहा है
 
उर्यानी का वो दौर मआज़ अल्लाह है जारी
मुर्दा भी यहां अपना कफ़न छोड़ रहा है

मीज़ाइलें, रॉकिट, कभी बौछार बमों की
क्या क्या नहीं धरती पे गगन छोड़ रहा है
 
आओ कि सलाम अपना गुज़ार आयें रफ़ीक़ो
इक शायरे-ख़ुश-फ़िक्र वतन छोड़ रहा है
 
इस्टेज के अशआर पे रखते हैं नज़र हम
हम फ़न को तो 'रहबर` हमें फ़न छोड़ रहा है