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जो सजता है कलाई पर कोई ज़ेवर हसीनों की / शोभा कुक्कल

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जो सजता है कलाई पर कोई ज़ेवर हसीनों की
तभी बढ़ती हैं क़ीमत जौहरी तेरे नगीनों की

उठा देती है दीवारें दिलों के बीच ये अक्सर
ज़रूरत क्यूँ हो फिर हम को भला ऐसी ज़मीनों की

उसी में छेद करते हैं कि जिस थाली में खाते हैं
बदल सकती नहीं आदत कभी ऐसी कमीनों की

भरा है लाख फूलों से मिरे घर का हसीं आँगन
यही है मेरी दौलत मुझ को क्या चाहत दफ़ीनों की

कभी मेहनत मशक़्क़त से कमा लोगे बहुत दौलत
मगर बदलोगे तुम कैसे लकीरों को जबीनों की

उठा कर एक बार उन को लगा लो अपने होंटों से
छुएँगी आसमाँ को क़ीमतें उन आबगीनों की

जो नुक्ता-चीं हैं रहना है हमेशा नुक्ता-चीं उन को
बदल सकती नहीं फ़ितरत कभी भी नुक्ता-चीनों की।