भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जो हम नहीं कहते / शुभा
Kavita Kosh से
यह परिस्थितियाँ हीं हैं जो
आदमी के अन्दर ढल रहीं हैं क्रूरता की तरह
कभी विवशता की तरह
एक सामाजिक संरचना हिंसा बनकर उतरती है आदमी में
हम कहते हैं फलाने ने फलाने की हत्या कर दी
हम नहीं कहते कबीलों में हत्या होती ही है
परायों की
हम उस चीज़ को नहीं देखते जो
लोगों को अपने पराए में बाँटती है
इन्सान विभाजित हो जाता है अपने अन्दर ही
हम इस विभाजन को नहीं देखते
हम कहते हैं उसने हत्या की या उसने आत्महत्या की
आस-पास ही खोज लेते हैं हम कोई कारण भी
जैसे पुलिस जब चाहती है सबूत जुटा लेती है
या उन्हें मिटा डालती है।