जो हारते नहीं, जो भागते नहीं / सुभाष राय
ग़रीबों के दुख पर जो अशआर सुनाते हो तुम
थरथराते रहते हैं और आग पैदा करते हैं
ज़हर बुझी हवाओं की आहट भी पहचान लेते हो तुम
जानते हो कि साँप से सामना हो
तो सबसे पहले उसका सर कुचलो
तुम यह भी जानते हो कि कुछ बच्चे
भीख माँग रहे हैं सड़कों पर
और कुछ बन्दूकें चलाना सीख रहे हैं
तुम जानते हो उन्हें भी जो
हर मौत को आँकड़ों में गिनने के आदी हैं
जो छिपने के लिए अपने क़िले बनाकर रखते हैं
तुम ख़ूबसूरत लगते हो
युद्ध की ज़रूरत पर बतियाते हुए
काले पहाड़ को ढहा देने का इरादा जताते हुए
तुम जीत लेते हो मुझे, मुझ जैसे अनगिनत लोगों को
शब्दों से बाहर जाना ही होगा तुम्हें मोर्चे पर
मेरे कई दोस्त निकल चुके हैं शस्त्र सम्भाले
हो सकता है कुछ बेहद गुस्से में हों
थकान या विस्मृति में ठहरे हुए
या फिर बारूद जमा कर रहे हों
बहुत जल्द सबकुछ बदल डालने की व्यग्रता में
उन्हें बताने हैं जल्दबाज़ी के ख़तरे
जाओ दोस्त, तुम्हें नज़र आऊँगा
लड़ते हुए हमेशा तुम्हारे साथ
अपनी आँखों में देखना मुझे
वे सभी होंगे तुम्हारे साथ
जो हारते नहीं, जो भागते नहीं