ज्ञानदेव को पत्र / प्रेम प्रगास / धरनीदास
चौपाई:-
मनमोहन इत अमरे आई। विधना कीन सलोन सगाई॥
लिखत न वात वनै वहुतेरी। प्राणमती करि दीन्हेउ चेरी॥
परमारथ कहि अबहिं सुनाऊं। कुशल क्षेम विधिवत लिखवाऊँ॥
आगिल समाचार सब कहहीं। देव दरश कंह आवत अहहीं॥
यहि दिशि कुशल अहै कल्याना। वहि दिशि कुश करो भगवाना॥
विश्राम:-
जा दिन लगन निरूपन, ताहि लिखो समुझाय।
अवशि ताहि दिन आइहें, जो जगदीश सहाय॥229॥
चौपाई:-
लिखि पाती दिहु आगु चलाई। पाछे चलो सकल कटकाई॥
घावन गयउ उदयपुर मांहा। ज्ञानदेव भूपति रहु जांहा॥
दे पाती तिन मस्तक नावा। पूछयोराव कहांते आवा॥
तब उन कहा दुवो कर जोरी। स्वामि सुनो विनती यह मोरी॥
ध्यानदेव श्रीपुरहिं नरेश। मनमोहन मिलि पठव संदेशा॥
विश्राम:-
मनमोहन को नाम सुनि, पुलकित भौ सब गात।
ले पाती उर लायऊ, पुनि पूछयो कुशलात॥230॥
चौपाई:-
घावन कुशल कहो वहु भांती। जेहि विधि भवो भूप चित शांति॥
कह घावन दुख दाव निहारा। जेहि विधि श्रीपुर गयउ कुमारा॥
इतना दिन वीते केहि भांती। धयनदेव किमि भये विराती॥
पुनि धावन सब कथा सुनाई। आदि अंत जैसी ह्वै आई॥
जा विधि श्रीपुर गयउ कुमारा। जेहि विधि भयो विवाह विचारा॥
विश्राम:-
जेहि विधि दिन खंडित भयउ, सो सब कहि समुझाय।
आवत पंथ प्रकार जेहि, दम्पति नृप समुदाय॥231॥
चौपाई:-
वाँचन पाती नृपति सिधाये। आनन्दित अन्तःपुर आये॥
सुनत चाहु प्रमुदित सब रानी। लागि दवागि वरिसु जनु पानी॥
हर्षित गाँवहिं मंगल चारा। दियो परम सुख सिरजनहारा॥
आयउ राव वहुरि दर्वारा। वहुत द्रव्य धावन पर वारा॥
सकल राज पुनि पसरी वाता। कुंअर कुशल ले आव विधाता॥
सुनत चाह सब तावरि आये। मानहु कृपण महाधन पाये॥
विश्राम:-
द्रव्य लुटाओ अनगिनत, आय नृपति रनवास।
वसुधा के जाचक जुरे, पूजी मनकी आस॥232॥
चौपाई:-
धावन को अस कियो पसाऊ। जन्म भोग कह सम्पति पाऊ॥
ज्ञानदेव पुनि लिखा उतारा। दुहु दिशि कुशल क्षेम व्यवहारा॥
अंकमालिका औ पवधारी। वार वार विनती अनुसारी॥
आजु दहिन मोहि भवो विधाता। पाओ मनमोहन कुशलाता॥
तेहि पर राव अनुग्रह कीन्हा। जेहि प्रकार निज दर्शन दीन्हा॥
विनती मानिय कहल हमारा। मारग मांह न लाइय वारा॥
विश्राम:-
वरु दिन चारि रहब हतै, होइय दर्शन देव।
साहेब की सूरति हिये, सेवक नित प्रति सेव॥233॥
चौपाई:-
लिखि पाती पुनि दीन चलाई। सहित महथ नेगी हंकराई॥
देश देश वरु नेवति पठाई। जत चाही तत सांज कराई॥
अस जनिवास वनाव करावा। सुर नर मुनि गन मनहि सोहावा॥
नगर नगर पट चित्र लिखावा। कोट कंगूरा कनक ढरावा॥
जत आज्ञा कीन्हो भूपारा। नेगिन किय तेहिते अधिकारा॥
विश्राम:-
जब समीप दिन आयऊ, तब आई वरियात।
ज्ञानदेव नृप आगुवें, जाय मिले विहसात॥234॥