चौपाई:-
ज्ञान ध्यान दीन्हो अंकवारा। मनमोहन आरती उतारा॥
प्राणमती उठि गवनी तांहा। वैठी ज्ञानमती धनि जांहा॥
कहेउ कुंअरिसों सब समुझाई। अब पलटा विधि करो वधाई॥
लाइ सुधा कुंअरिहि नहवाई। मणिगण जटित चीर पहिराई॥
सखिन साज षोडश शृंगारा। चन्द थार जनु साजल तारा॥
विश्राम:-
सुख दुख चाहे सो करे, कर्त्तहिं करत न बार।
धरनीश्वर नहि छोडिये, धरनी तार निहार॥235॥
चौपाई:-
अगिनित राव आव न्योतारा। अवरलोग को करै शुमारा॥
जैहवा वनु अपूर्व जनवासा। तंह वरात दीन्हो सुखवासा॥
जंह लगि ज्योते आय भुवारा। छोट मोट सुखवास उतारा॥
चहुं दिशि वाजन होत अघाता। श्रवण निकट नर वोलहिं वाता॥
गावन सब गावहिं वर नारी। देखहिं नित्य देवगण झारी॥
विश्राम:-
ज्ञानदेव आनन्द उर, सब कंह किहु सनमान।
सब जेवनार जेवांयऊ, पंचामृत पकवान॥236॥
चौपाई:-
षट् रस अति रुचि वनी रसोई। व्यंजन नाम कहे कत कोई॥
कित पकवान कहों परकारा। मेवा वरनि सकै को पारा॥
केते मधुर कन्दफल जानी। नाना भांति परोसहिं आनी॥
दधि घृत मधु चीनी कत करेऊ। भरि भरि कनक कचोरन घरेऊ॥
गंगोदक कपूर रस वासा। कनक पात्र विनु तृषा पियासा॥
परमातम की आरति गाई। आतम राग रसोई पाई॥
विश्राम:-
जंह लगि जीव जुरे वाहं, सबै अघाने पाय।
देव वास तिरपित भये, घंट उठे घहराय॥237॥
चौपाई:-
तब पुनि विप्रन वात जनाऊ। स्वामी लगन निकट चलि आऊ॥
तत छन राजा किहु असनाना। ब्रह्म चरचि पट किहु परिधाना॥
यज्ञ समय जत जो व्यवहारा। सो नर नारि करहिं तेहि वारा॥
मणिक जडित पट मांडव छाये। गज मोतियन की झालरि लाये॥
वेदी चन्दन रगरि लिपाऊ...॥
पुहुप जहांलों कहिय सुवासा। मंह मंह मोद होय चहुंपासा॥
विश्राम:-
वर कन्या नहवायऊ, भूषण साज बनाय।
जिन देखा तिन जानेऊ, कहे कवन पतियाय॥238॥
चौपाई:-
उठे ज्ञान मांडव मंह आऊ। विप्र पुरोहित तंह हंकराऊ॥
कंचन कलश घरो तंह भारी। रतन यतन करि धरि तंह वारी॥
आम्र पलाश वांस की शाखा। पुरइनि पात आनि तंह राखा॥
वेदि विविध विछावन डासा। कनक कलश सोहै चहुंपासा॥
कनक पीठ वर कन्या वैसे। राजत रती मकर ध्वज जैसे॥
विश्राम:-
एक दिशा मुक्तावली, फेंक युगल नरेश।
मध्य मंडप रहि सुन्दरी, पूजहि गौरि गणेश॥239॥