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ज्ञान नहीं पर बातें‍ करते ख़ाली -पीली मज़हब की / विनोद तिवारी

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ज्ञान नहीं पर बातें करते ख़ाली-पीली मज़हब की
मनो या मत मानो है तासीर नशीली मज़हब की

परत ऊपरी ठण्डी-ठण्डी बरसों पता नहीं चलता
भीतर भीतर सुलगा करती लकड़ी गीली मज़हब की

ऐसी भड़की आग के सब कुछ स्वाहा होता चला गया
फेंक गया कोई छप्पर पर जलती तीली मज़हब की
 
कट्टरता की अंध भावना सही ग़लत का तर्क नहीं
लड़ने मरने पर आमादा ज़ात हठीली मज़हब की

उकसाती लड़वाती बे मौसम शहीद करवा देती
पर ग़रीब का पेट न भरती यार पतीली मज़हब की