ज्ञान / विमल राजस्थानी
‘‘देवि ! व्यर्थ लज्जित क्यों, मरघट नहीं दीखता ?
आधे जले शवों को लख मन नहीं चीखता ?
चिता-भस्म मुट्ठी भर यह मानव शरीर है
हतभागा मानव इसके हित ही अधीर है
जरा-जीर्ण हो कर भी मरना नहीं चाहता
अंतकाल आने तक अपना ऋण उगाहता
जीवन में वह बार-बार मरघट आता है
किन्तु, ज्ञान-आभा से मन न सँवर पाता है
सजा, सँवार, चूम, सहला कर हर्षाता है
वही शरीर राख की ढ़ेरी बन जाता है
केशर चंदन के उबटन से बने सुनहले
क्षत-विक्षत हो पड़े हुए शव सड़े, अधजले
क्या होता है भान तुमको नश्वरता का ?
देख रही क्या नहीं मृत्यु की तिमिर-पताका ?
कोमल किसलय-अंग, अग्नि का आलिंगन है
बढ़ा आ रहा मरण-शरण सारा त्रिभुवन है
देवि ! श्वाँस प्रत्येक मरण ही तो होता है
व्यर्थ जन्म-दिन का उत्सव मानव ढा़ेता है
रूप-राशि का दंभ बिखर जाता पारे-सा
मरघट का सिकता-कण लगता अंगारे-सा
मृत्यु सुखद होती, चिन्तन ही दुख देता है
हृदय मृत्यु-भय से मानव जब भर लेता है
सिहर-सिहर उठता, भीतर तक काँपा करता
इसी भाँति जीवित रह कर भी क्षण-क्षण मरता
स्वाद मृत्यु का मधुर-मृदुल जिसने जाना है
परम स्वजन की भाँति मरण को भी माना है
वही सुखी रहता, झानोदधि की लहरों पर-
नर्तन-रत रह कर, शासन करता प्रहरों पर
नहीं मृत्यु-भय ने मुझको अन्यों-सा घेरा
जीवन काली रात, मृत्यु तो सुखद सबेरा
मुझे न जीवन का, न मृत्यु का रूप खींचता
सम रह, हरियाली, ऊसर को रहा सींचता
मेरे लिए रूप का अर्थ नहीें था कोई
मेरे लिए सृष्टि में व्यर्थ नहीं था कोई
चाहे वह हो गलित कुष्ट-रोगी, कुरूप हो
मेरे लिए समान, रंक हो या कि भूप हो
आकर्षण का केन्द्र-बिन्दु फिर तुम क्यों होती
मेरे लिए रेत-कण भी थे हीरे-मोती
प्रेम, वासना का अंतर तुम नहीं जान पायी
मुझको तुम अन्तरतम तक पहचान नहीं पायी
इसीलिये दुख-भार तुम्हें मारे फिरता था
हृदय-गगन जल-शून्य बादलों से घिरता था
यह अप्रतिम सौन्दर्य तुम्हारा कहाँ उड़ गया ?
जीवन का प्रवाह देखो री ! कहाँ उड़ गया
तुमने मन के वशीभूत होना सीखा है
तुमको आत्मा का आकाश नहीं दीखा है
नहीं विश्व-मानव की कभी कल्पना जागी
लक्ष्य तुम्हारा रहा अकिंचन भिक्षु विरागी
वे आभूषण, स्थित विपुल, श्रंृगाल-प्रसाधन
छूट गये सब, साथ रहे बस ये सिकता-कण
यदि तुम शत-शत करों कर्ण-सा स्वर्ण लुटाती
दीनों-दुखियों की सेवा में हाथ बँटाती
स्वयम् अन्तरात्मा स्थिम प्रभु से जुड़ जाती
जीवन के पथ को प्रशस्त कुछ और बनाती
यदि भुज-बंधन में वेदना विश्व की भरती
जो थी कल तुम उससे भी कुछ अधिक सँवरती
मेघ बरसते शस्यश्यामला धरती पर भी
उसी भाव से जल बरसाते परती पर भी
जो रखते सम दृष्टि तथा सम भाव सभी पर
सचमुच मनुज रूप में वे ही तो हैं ईश्वर
दिया पुरुष को तुम-सी नारी ने बस, बंधन
पतनोन्मुख नश्वर शरीर का क्षण-आलिंगन
देहों का गुंफन, सुख की अनुभूति क्षणिक-सी
उत्कर्षो की शत्रु वासना मात्र तनिक-सी
जब गुफंन आत्मा का आत्मा से होता है
मनुज तभी प्रभु होता, परमात्मा होता है
तुमने इस तन-गुंफन को ही बरबस माना
नहीं आत्मारति, दैहिक सुख को जीवन जाना
शाश्वत है आनंद, क्षणिक सुख ही होता है
यही क्षणिक सुख जीवन भर मानव ढ़ोता है
सोच-सोच होता प्रसन्न-जग जीत लिया है
सच तो यह, जीवन उसने गरल पिया
यह आवश्यक नहीं कि सब योगी हो जाये
सांसरिकता त्याग, सिद्धियोंमें खो जायें
कमल पंक में रह कर भी हँसता-खिलता है
प्रभु-पद पर चढ़ने की उसमें विहलता है
सद् गृहस्थ भी अनासक्त रहते हैं जग से
बच-बच कर चलते रहते है कंटक-मग से
कमल बना रहना सबसे सुन्दर होता है
रह निर्लिप्त, मनुज कंधो पर जग ढ़ोता है
पर तुम तो आकंठ लिप्त थी सृष्टि-पंक में
जीवित ही उतरी मरघट के अग्नि-अंक में
तुमने केवल निज को, पागल जग को देखा
तुम्हे दिखाई पड़ी न इन क्षितिजों की रेखा
तुमने कभी क्षितिज के पार नहीं देखा है
अमरों का स्वर्णिम संसार नहीं देखा है
जब से सृष्टि, तमिसा्र भटकाती आयी है
क्षितिज उसे दीखता, ज्योति जिसको भायी है
आत्मा ही वह ज्योति, गहो किरणों के कर को
भटकोगी तुम नहीं, पहुँच जाओगी घर को
कितनी ही विचार-धाराएँ जग में फूलीं
अमित धारणाएँ मन-हिंडोलो में झूलीं
हैं ब्रह्मंड अनेक, जीव भी तो अनेक है
किन्तु, सभी का मूल एक है, उत्स एक है
सच पुछो तो सकल सृष्टि है एक इकाई
पर्वत यहाँ न कोई और न कोई राई
मनुज-मनुज में भेद अभागे जो करते हैं
वे विनाश की खाई में ही पग धरते हैं
तरी बंधी है तट से, चढ़ने भर की देरी
साध शब्द-वेधी बैठा है काल-अहेरी
पर तुमको भाया केवल संसार सुनहला
नहीं दृष्टि-पथ में आया संसार रुपहला
अन्तर-ज्योति सभी की जलती ही रहती है
कुहू निशा मानव को छलती ही रहती है
इस दुनिया के पार एक संसार हो है
है न वहाँ आसक्ति, वहाँ का प्यार और है
मैं चिर परिचित उसी प्रेम का एक पुजारी
मुझे रिझा सकती न रूप-श्री, महल अटारी
विश्वामित्र नहीं मैं जो यौवन पर रीझूँ
मणि-मुक्ता-हीरा-पन्नो-कंचन पर रीझूँ
देवि ! तुम्हारी अभिलाषा के पंख कुतर कर
निखरा है वैराग्य, हुआ है अतिशय भास्वर
उधर, न तुमने सिवा अतनु के अन्य न सोचा
तुम्हें पतन के ही भूतों ने सदा दबोचा
यदि नृत्यांगन-जीवन से तुम ऊबी होती
यदि इच्छा साधना-सिन्धु में डूबी होती
सुप्त अर्धमस्तिष्क स्वयम् का जाग्रत करती
सुक्ष्म लोक के सब रहस्य आवलोकित करती
यदि तृतीया नेत्र खुलने की कांक्षा होती
सूक्ष्म सिद्धियों की चाहें प्राणों में बोती
ब्रह्म-रंध्र में ऊर्जा का स्फुरण चाहती
बोधिसत्व-पद-पद्यो में शुभ शरण चाहती
यदि लेती सोच-एक दिन मरना होगा
अर्पित यह सौन्दर्य अग्नि को करना होगा
जो भी आया यहाँ गड़ा है और जला है
या पांडव-कुटुंब-सा हिम के बीच गला हैं
जिन्हे मान भगवान पूजती सृष्टि रही है
उनकी भी तो सदा मृत्यु पर दृष्टि रही ह।
क्षणभंगुरता का सम्यक यदि ज्ञात पिरोती
रूप-गर्वित ! असमय यह दुर्दशा न होती
तुम्हे बोधि के तट पर मैं खे कर ले जाता
सत्पथ का निर्देश तुम्हें दे धर्म निभाता
पर तुम तो वासना-करो में खेल रही थी
कामोदधि के कू्रर थपेड़े झेल रही थी
यदि तुमने दीक्षा के लिए पुकारा होता
मन को मार अभीष्ट मार को मार होता
ईषत् इंगित पर मैं पुलकित मन से आता
सुभगे ! दिव्याभा से तव जीवन भर जाता
पर तुम रूप-दंभ-सागर में डूब गयी थी
सोच लिया ब्रह्मा की कृति तुम कालजयी थी
पर सौन्दर्य-रूप की मंदिरा विष ही तो है
यह प्रचंड वासना पतन- आशिष ही तो है
आकर्षण के केन्द्र सभी तो राख हो रहे
वधिक-करो से नुचे कवहग की पाँख हो रहे
जिनकी दृष्टि नहीं क्षितिजों के पार हुई है
मात्र उन्ही की इस जीवन में हार हुई है
तुमने एक रूप नारी का ही जाना है
अन्य रूप नारी का किन्तु, न पहचाना है
नारी माँ होती है, वह गुरु भी होती है
नर का कलुष स्तनों के पय से धोती है
गुरु बन कर संबल बनाती है मोक्ष-पंथ का
जीवन में कारण बनती है मधु-वसंत का
नारी है कैकयी, किन्तु, वह सीता भी है
काम-शास्त्र ही नहीं, कृष्ण की गीता भी है
त्याग तथागत का क्या तुम री ! नहीं जानती ?
भैतिकता को ही तुम सब कुछ रही मानती
मात्र भोग को ही था जीवन माना तुमने
मात्र भिक्षुक के हेतु व्यर्थ हठ ठाना तुमने
मुझ भिक्षुक के हेतु व्यर्थ हठ ठाना तुमने
रूप-ज्वाला की लपटों से ही सदा जली तुम
देवि ! स्वयम् से ही जीवन में गयी छली तुम
चाह रहा मैं-शरण गहो आजानुबाँह की
यही पल रही सदा हृदय में प्रबल चाह थी
आज वही अवसर आया है, मैं लाया हूँ
प्रथम-मिलन-उपहार ज्ञान का, मै लाया हूँ
यह संसार शोक-दुःख की आजिर खान है
सुख में भी तो दुःख शोक ही विद्यमान है
नहीं मोक्ष भी त्राण दुखो से दे पाता है
मन थोड़ी-सी देर अवश्य बहल जाता है
भैतिक सुख, मन के प्रपंच, सब दुख क स्वर हैं
जो अनंत है और नित्य वह भी न अमर है,
सुख है कुछ भी नहीं, सभी कुछ दुख ही दुख है
दुख-निवृत्ति न संभव यदि निर्वाह-विमुख है
चार सत्य निश्चय निर्वाह दिलाने वाले
युग-युग के प्यासों को अमृत पिलाने वाले
पंचभूत निर्मित शरीर यह जरा-रोग मय
जन्म-मृत्यु-पीड़ा के हाथों पता है क्षय,
प्रथम सत्य है। और दूसरा इच्छा-तृष्णा-
का बढ़ते ही जाना, सुख की प्रबल एषणा।
सत्य तीसरा-मात्र जन्म की तीव्र पिपासा-
शमित किये बिन स्वर्ग-प्राप्ति है मात्र दुरशा।
चौथा अंतिम सत्य-मार्ग मध्यम अपनाना
बिना इन्हे जाने न थमेगा आना-जाना
वीणा उतनी कसो कि जिससे तार न टूटे
जप-तप इतना करो देह से प्राण न छूटे
अति जिसकी भी हो, अतिशय घातक होती है
पतनोन्मुखी सदा होती, पातक होती है
मध्यम गति का पथिक पंथ में कहाँ थका है
मध्यम गति का पथिक पंथ में कहाँ रुका है
इन्हे हृदय की परत-परत मं अंकित कर लो
लो देता हूँ ज्ञान, उठो, अन्तर में भर लो
इस नश्वर शरीर की गति, गिद्धों का भोजन
धू-धू कर जलती चिताग्नि का ही संयोजन
पीछे छुट गये सारे सुख, मुड़ कर देखो
मरघट के शाश्वत सत्यों से जुड़ कर देखो
देखो करुणामूर्ति, क्षमा के सजल, सघन घन
बरसाते अनवरत तथागत अमृत वारि-कण
इनमें भीग-भीग जीवन को धवल बनाओ
स्वयम् उपस्थित ज्ञान, चरण पर फुल चढ़ाओ
जीवन की यह परिधि असीमित करनी होगी
उस असीम में करुणा अणु-अणु भरनी होगी
सत्य, अहिंसा, क्षमा मनुज के आभूषण हैं
भौतिकता का मोह मनुज के मन का व्रण है
जिसने चार सत्य जीवन में नहीं उतारे
निश्चय वह जाता है मर कर यम के द्वारे
आज तुम्हे मैं ये ही सत्य बताने आया
इनमें रम कर पाओगी पहले-सी काया
इस मरघट में, शव-शव से उठती कुगंधमें
सूर्य्य-किरण प्रकटी है देखो घ्सनी धुंध में
यह आलोक, गुहा में मन की, सहज उतारो
सब प्रवृतियों के सारे संवेग नकारो
सत, रज, तम इन तीन गुणों की साम्यावस्था
यही प्रकति-आधार, प्रकति की मूल व्यवस्था
नित्य, अनन्त, अमर कोई भी वस्तु नहीं है
सर्वश्रेष्ठ अष्टांग साधना अस्त, यही है
सम्यक दृष्टि, वचन सम्यक, सम्यक प्रयत्न हो
सम्यक हो संकल्प, जीविका, सम्यक धन हो
सम्यक स्मृति हो, सम्यक हो कर्म हमारा
सम्यक हो समाधि, वह यह ही है धर्म हमारा
जो कुछ तुमने किया, जिया बीते जीवन को
उसे भूल स्मरण करो बस करुणा-घन को
उनके कृपा-वारि में अपने अश्रु मिला दो
झरें जीर्ण, दू्रत पत्र मूल तक वृक्ष हिला दो
अच्छा होता है न अधिक अतीत में जाना
नहीं भविष्यत्, वर्तमान जाना-पहचाना
मैं भविष्य की बात बताना चाह रहा हूँ
अघ-समुद्र सम्मुख, उसकी देह थाह रहा हूँ
‘‘देख रहा मैं दिव्य दृष्टि से आने वाले कल को
मनुज उतारेगा जीवन में केवल छल को, बल को
मारग शस्त्रों से धरती का आँगन पट जायेगा
गगन-चारियों के चलते संसार सिमट आयेगा
तीन भाँति के मनुज-सिन्धु से धरा उफन जायेगी
कली्व, दृश्य-दर्शक, आलोचक की कुबाढ़ आयेगी
जातिवाद के विषदंती व्यालों को प्रश्रय देकर
आतताइयों के बलबूते शासक का पद लेकर
अपने कोषागार भरेंगे मत-पत्रों के बल पर
तथाकथिक कुछ जन-सेवी ही राज करेंगे थल पर
नारी की अस्मिता धूल चाटेगी, ‘काम’ बढे़गा
कुसंस्कारियों का अभिमान सूरज गगन चढ़ेगा
चींटी-सा मसले जायेगे सभ्य, दया रोयेगी
करुणा शीश धुनेगी, सौष्ठव-दीप्ती, क्षमाा खोयेगी
मनुज स्वार्थी होंगे, खडित हो कुटुम्ब बिखरेंगे
सद्गुण होंगे लुप्त, दुर्गुणों के आनन निखरेंगे
नाना धर्म रहेंगे पर धार्मिकता शून्य रहेगी
पापाचारी की धन-लिप्सा ही मूर्धन्य रहेगी
मनुज दनुजवन होंगे, अपनो के प्राण हरेंगे
कवि-लेखक-ज्ञानी-पंडित विरुदावलियाँ टरेंगे
वर्तमान में ये बातें अंकुरित हो रहीं ऐसे
बदली हो कलि की कुचाल ने अपनी करवट जैसे
धीरे-धीरे ये अंकुर फूटेंगे, विष व्यापेगा
भले सम्मुन्नत हो विज्ञानी नखत-लोक नापेगा
दृश्य अभागा हमें न दीखेगा, संतोष यही है
पुनर्जन्म होगा कि न होगा, मुझको ज्ञात नहीं है
पर जो सम्मुख अमिय-धार बह रही उसीमें डूबो
बहुत खो चुकी सुन्दरि ! अव तो इन नर्कों से ऊबो
थोड़ा रुक कर सन्यासी फिर यों बोले
अन्तर-पट वासव के वाणी से खोले
‘‘जब अनय बजा कर दुंदु, सृष्टि पर छाता
क्षण कारक होता है अवतारों का
आ जाता अंत निकट उलूक-स्यारों का
धरती पर केवल सिंह बचा करते है
वे ही नूतन सृष्टि रचा करते है
नकी दहाड़ से दिक्दिगत थर्राते
मानवता का विनाश द्रुत दौड़ बचाते
भगवान तथागत का यह मौन सुनो री !
यह मूक गर्जना, हो निष्पाप, गुनो री !!
यह शांति नहीं, विपृव का पुंज बड़ा है
इसके बल पर ही तो यह धर्म खड़ा है
तुम उसी धर्म को आत्म-सात कर जागो
त्यागो-त्यागो इस जड़-निद्रा को त्यागो
है त्याग विश्व में बड़ा न दूजा कोई
नश्वर के चरण पखार व्यर्थ तुम रोयी
अब तो उस अविनाशी का ध्यान करो री !
सच्चिदानन्द प्राणों में भरो, भरो री !!
मन के द्वारा मन के न पार जा सकते
गतिमान विचार-चरण कब थक कर रुकते’’
अधिक और विश्लेशण का अब समय नहीं है
किन्तु, मनुज का सुमुखी, सुन्दर धर्म यही है’’