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ज्यों-ज्यों उम्र बढ़ती गई / लैंग्स्टन ह्यूज़ / उज्ज्वल भट्टाचार्य
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इक अरसा हो चुका है.
मैं अपना सपना लगभग भूल चुका हूँ ।
लेकिन वह था,
ठीक मेरे सामने,
सूरज-सा चमकीला —
मेरा सपना ।
और फिर दीवार उभरी,
जो ऊँची होती गई,
धीरे-धीरे,
मेरे और मेरे सपने के बीच ।
ऊँची होते-होते आसमान छूने लगी —
वह दीवार ।
साया ।
मैं काला हूँ ।
साये में पड़ा हूँ ।
मेरे ऊपर
सपने की किरण तक नहीं रह गई है ।
सिर्फ़ मोटी दीवार ।
सिर्फ़ साया ।
मेरे हाथ !
मेरे काले हाथ !
तोड़ दो दीवार को !
खोज लाओ मेरा सपना !
मदद करो कि इस अन्धेरे को चीर दूँ,
इस रात को कुचल दूँ,
साये को तोड़ दूँ,
धूप की हज़ारों किरणों में
नाचते रहे हज़ारों सपने
धूप के ।
मूल अँग्रेज़ी से अनुवाद : उज्ज्वल भट्टाचार्य