ज्योतिदान / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
ज्ञान दान नव ज्योति-दान सबसे महान है भूपर।
अन्धकार अज्ञान सघन छँट सुख देता है सत्वर।
मणिकुण्डल चल पड़ा पंथ पर हर्ष अपार जगा था।
अंग-अंग में धर्म-रंग ही उसके रंगा-पगा था।
गयी शर्बरी बीत दुखों की सुख-प्रभात आया था।
सत्य सम्बलित अभिनव जीवन-वारिज मुस्काया था।
सदाचार सद्गुण विशेष भीतर बाहर छाया था।
साथ विशल्यकारिणी के अवशेष शेष लायाा था।
मिट जाता तम-तोम सहज जब दिनकर आ जाता है
धरती के हर अंग-अंग का रूप निखर आता है।
धरती से अम्बर तक पावन स्वर्ग-सेतु बन जाता है।
जीवन हो जीवन्त कर्म के सोपानों पर आता।
भाग्य उदित हो रहा आज उस धर्मी मणिकुण्डल का।
नगर, गाँव, घर-द्वार हो रहा मान ज्योति उज्ज्वल का।
करते करते भ्रमण आ गया वह महानपुर नगरी।
ऋद्धि-सिद्धि से जो समृद्ध सब भाँति दिख रही निखरी।
किन्तु यहाँ के महाराज को पीड़ा एक प्रबल थी।
दृष्टिहीन इकलौती कन्या की चिन्ता हरपल थी।
नृप की थी घोषणा सुता को ज्योति दान जो देगा।
वही हमारे सकल राज वैभव विशाल को लेगा।
समाचार सुन दूर देश के वैद्य बहुत से आये।
किन्तु सुता के युगल दृगों की ज्योति-नहीं दे पाये।
मणिकुण्डल ने सुूना, सुता का जीवन तमसाविल है।
बिना ज्ञान उन्नति वसुधा की ज्यों रहती बोझिल है।
जाग उठी भावना प्रबल पा सेवा में उन्नत हो।
सेवा बिना मनुज जीवन जैसे पशुता में रत हो।
जिनके गुण-प्रकाश से जग के कमल खिला करते हैं।
दिव्य भाव के कोश सहज ही उन्हें मिला करते हैं।
राजसभा में पहुँच गया था मणिकुण्डल हर्षित हो।
उसके रूप-शील-गुण पर दरबार गया पुलकित हो।
राजा ने मणिकुण्डल को सादर आसन दिलवाया।
फिर अपनी इकलौती चिन्ता से अवगत करवाया।
पुत्रहीन हूँ वत्स! एक कन्या है हतभागी है।
दृष्टिहीन लाचार भार-सी खुशियों की त्यागी है।
और राज-वैभव समृद्धि धन-धाम प्रभाव अमित है।
किन्तु देख भावी मावस को मन रहता चिन्तित है।
चिन्ता छोडे़ं महाराज! निज कन्या को बुलवायें।
दृष्टि मिलेगी आज उसे हर्षित हो खुशी मनायें।
हुआ घोर आश्चर्य नृपति को बालक! क्या कहते हो?
नेत्रहीन को दृष्टि-दान कि सपने में बहते हो।
नहीं-नहीं राजन! रंचक भी मैं न झूठ कहता हूँ।
धर्म-पंथ का पथिक स्वप्न में नहीं कभी बहता हूँ।
राज-सुता के नयनो में भी संजीवनी लगायी।
नयी रोशनी उस कन्या के जीवन में लहरायी।
चमक उठी सब सभी प्रबल जयघोष मुखर होते थे।
राजसमाज सहित नृप सुख में लगा रहे गाते थे।
मणिकुण्डल के साथ सुता का ब्याह कर दिया सत्वर।
राजतिलक कर स्वयं चल दिया हरिदर्शन को हटकर।
मणिकुण्डल को मिली सुदृढ़ता धर्म अपनाकर।
और राजवैभव श्रद्धा से विनत हुआ चरणों पर।
किन्तु मित्र के बिना उसे रस रास नहीं आता था।
सुख अपार धन-मान किन्तु कुछ भी न उसे भाता था।
मणिकुण्डल गौतम की चिन्ता से चिन्तित रहता था।
रहे कुशलता से ही गौतम ईश्वर से कहता था।
चन्दन को काटे कुठार फिर भी सुगन्ध पाता है।
परम-क्रूर पापी को भी धर्मात्मा दुलराता है।
फूल चढ़े देवों पर या अर्थी पर डाला जाये।
वह सद्गुण-सुगन्ध से ही सबको सदैव नहलाये।
घट-मृत्तिका याकि कंचन हा कलश भव्य हो भाई।
मदिरा का संसर्ग रहा दुगुर्ण-दुर्गन्ध उगायी।
घोर अधम गौतम का धन था भेगों ने खा डाला।
दुराचरण के लिए दुष्ट ने पाया देश निकाला।
दुमर्ति ने दुर्गति कर डाली मिले दस्यु वन पथ पर।
शेष बचा सब लूट, किया अधमरा उसे था सत्वर।
कठिन दण्ड प दण्ड उसे मिलते जाते थे भारी।
श्वास-श्वास के लिए मृत्यु से लड़ता सतत विकारी।
किन्तु धर्म संचित होकर प्रारब्ध बना करता है।
नहीं रंच भी कहीं हमें वह ईश मना करता है।
जब बबूल के वृक्ष लगाये व्यर्थ आम्र की आशा।
नागफनी के वन में मधुकर! मधु की क्या अभिलाषा?
पड़ा पंथ पर पीड़ाओं की सहता मार बिचारा।
किन्तु किसी ने नहीं दुष्ट पापी को रंच निहारा।
देखा पथ पड़ा दुखित मणिकुण्डल ने गौतम को।
हृदयालिगंन किया, समुन्नत किया चरित उत्तम को।
अश्रुपात कर उठे नयन उर पीड़ा से विगलित था।
घोर कुटिलता पर अपनी दुख पश्चात्ताप अमित था।
मित्र! तुम्हारे उपकारों का मुझ पर भार अमित है।
मैंने किया कपट-छल तुमसे वह अब हुआ फलित है।
क्षमा करो हे मित्र! पराजित मैं सब भाँति हुआ हूँ।
धर्म धरा पर सुख का कारण है यह समझ गया हूँ।
विजय धर्म की ही धरती पर होती सदा रही है।
मणिकुण्डल! यह कथन तुम्हारा पावन और सही है।
गौतम! इसमें दोष मनुज का नहीं रंच होता है।
वह तो बस अपने संचित कर्मों को ही ढोता है।
करता कोई और मनुज तो बस निमित्त होता है।
घिरा हुआ अज्ञान-मोह से पीड़ित हो रोता है।
जहाँ धर्म है वहीं विजय है वहीं सत्य ईश्वर है।
धर्मनिष्ठा के पग वन्दन को लालायित सुरपुर है।
गौतम! केवल एक धर्म ही शान्ति मार्ग गढ़ता है।
जिस पर चलता हुआ मनुज मनुजत्त्व तत्त्व पढ़ता है।
आओ तुम्हें धर्म का दर्शन मैं फिर से करवाऊँ।
सत्य-धर्म की महिमा का कुछ-कुछ स्वरूप दिखलाऊँ।