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ज्योति-कुसुम / महेन्द्र भटनागर

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फूल ही
बस फूल की रे,
एक हँसती
खिलखिलाती,
वायु से औ' आँधियों से
काँपती
हिलती
सिहरती
यह लता है !
यह लता है !

देह जिसकी बाद पतझर के
नवल मधुमास के,
नव कोपलों-सी,
शुद्ध, उज्ज्वल, रसमयी
कोमल, मधुरतम !
आ कभी जाता प्रभंजन
बेल के कुछ फूल
या लघु पाँखुड़ी सूखी
गँवाकर ज्योति, जीवन शक्ति सारी,
मौन झर जातीं गगन से !
या कभी
जन स्वर्ग के आ,
अर्चना को,
तोड़ ले जाते कुसुम,
इस बेल से,
जो विश्व भर में छा रही है
नाम तारों की लड़ी बन !