मिट्टी के लघु-लघु दीपों से
जगमग हर एक भवन !
अँधियारे की लहरों से भूमि भरी,
पर,
 उस पर तिरती झलमल ज्योति-तरी,
- जलना है,
चाहे हो जाये - तारक-शशि हीन गगन !
 
जग पर छायी धूमिल वाष्प असुन्दर,
पर,
 बहता है अविरल स्नेह-समुन्दर,
- युग के मन-मरुथल में तुमको
 - रहना है भाव-प्रवण !
 
विशृंखल तेज़ प्रभंजन से संसृति,
पर,
 मुसकाती संग नयी बन आकृति,
- टूटेगा बाँध प्रलय का जब
 - हर नूतन सृष्टि चरण !
 
कोलाहल हर कोने से फूट रहा,
अब तो सपनों का बंधन टूट रहा,
- खो जाएगा नव-जीवन की
 - हलचल में क्षीण मरण !