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ज्योति की धारा-सी उमड़ी है / गुलाब खंडेलवाल
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ज्योति की धारा-सी उमड़ी है
पत्नी नहीं, स्वयं सम्मुख तू वीणापाणि खड़ी है
मन झकझोर रहा है कोई
पाये अंध दृष्टि ज्यों खोयी
लगता जैसे मेरी सोयी
आत्मा जाग पडी है
दिखता ज्यों मंदाकिनि-तट पर
मैं चन्दन घिसता, ले धनु-शर
राम-लखन हैं तिलक रहे कर
आयी पुण्यघड़ी है
अब तक रहा मोह-मद छाया
तूने मुक्ति-मार्ग दिखलाया
जिस पर चले न जग की माया
अब वह धुन पकड़ी है
ज्योति की धारा-सी उमड़ी है
पत्नी नहीं, स्वयं सम्मुख तू वीणापाणि खड़ी है