भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ज्योत्स्ना / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
मेरे पास यह आती हुई इतरा रही है ज्योत्स्ना,
मुझको देख एकाकी, सतत भरमा रही है ज्योत्स्ना !
धीरे से मुँडेरों पर उतरती आ रही है ज्योत्स्ना,
प्यारा और मीठा गीत, रानी गा रही है ज्योत्स्ना !
मेरे टीन पर, छत पर बिखर कर फैलती है ज्योत्स्ना,
मेरे हाथ से, मुख से निडर बन खेलती है ज्योत्स्ना !
सोने भी नहीं देती, स्वयं भी जागती है ज्योत्स्ना,
होती जब सुबह, जाने कहाँ जा भागती है ज्योत्स्ना !
मेरे से न जाने क्यों नहीं यह बोलती है ज्योत्स्ना,
प्राणों में अनोखा प्यार-अमृत घोलती है ज्योत्स्ना !