भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ज्वार नेह का / कुमार रवींद्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सबके भीतर ज्वार नेह का
                   अपने भीतर भी
 
पूनो का है चाँद
सिंधु में उजियारे बोता
सागर उमड़-उमड़कर
धरती का आँचल धोता
 
महासिंधु हो जाता है
                 ऐसे में पोखर भी
 
धूप धरी है जो पत्ते पर
वह भी सुख देती
चिड़िया बड़े छोह से
अपने बच्चों को सेती
 
नदी सुहागिल होती है
                  पतियाता है घर भी
 
पढ़ती है जब रितु
कनखी की कोमल कविताएँ
मन में भी हैं तभी उमगतीं
मीठी इच्छाएँ
 
नेह उमड़ता है तब वन में
                   गाते पत्थर भी